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Chapter
int64 1
61
| Part
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76
| Bait
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890
| Mesra
int64 1
2
| Text
stringlengths 18
34
|
|---|---|---|---|---|
1
| 1
| 1
| 1
|
به نام خداوند جان و خرد
|
1
| 1
| 1
| 2
|
کز این برتر اندیشه بر نگذرد
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1
| 1
| 2
| 1
|
خداوند نام و خداوند جای
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1
| 1
| 2
| 2
|
خداوند روزی ده رهنمای
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1
| 1
| 3
| 1
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خداوند کیوان و گَردان سپهر
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1
| 1
| 3
| 2
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فروزندهٔ ماه و ناهید و مهر
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1
| 1
| 4
| 1
|
ز نام و نشان و گمان برتر است
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1
| 1
| 4
| 2
|
نگارندهٔ بر شده پیکر است
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1
| 1
| 5
| 1
|
به بینندگان آفریننده را
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1
| 1
| 5
| 2
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نبینی مرنجان دو بیننده را
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1
| 1
| 6
| 1
|
نیابد بدو نیز اندیشه راه
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1
| 1
| 6
| 2
|
که او برتر از نام و از جایگاه
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1
| 1
| 7
| 1
|
سخن هر چه زین گوهران بگذرد
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1
| 1
| 7
| 2
|
نیابد بدو راه جان و خرد
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1
| 1
| 8
| 1
|
خرد گر سخن برگزیند همی
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1
| 1
| 8
| 2
|
همان را گزیند، که بیند همی
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1
| 1
| 9
| 1
|
ستودن نداند کس، او را چو هست
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1
| 1
| 9
| 2
|
میان بندگی را ببایدت بست
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1
| 1
| 10
| 1
|
خرد را و جان را همی سنجد اوی
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1
| 1
| 10
| 2
|
در اندیشهٔ سخته کی گنجد اوی
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1
| 1
| 11
| 1
|
بدین آلت رای و جان و زبان
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1
| 1
| 11
| 2
|
ستود آفریننده را کی توان
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1
| 1
| 12
| 1
|
به هستیش باید که خستو شوی
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1
| 1
| 12
| 2
|
ز گفتار بیکار یکسو شوی
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1
| 1
| 13
| 1
|
پرستنده باشی و جوینده راه
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1
| 1
| 13
| 2
|
به ژرفی به فرمانش کردن نگاه
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1
| 1
| 14
| 1
|
توانا بود هر که دانا بود
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1
| 1
| 14
| 2
|
ز دانش دل پیر برنا بود
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1
| 1
| 15
| 1
|
از این پرده برتر سخنگاه نیست
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1
| 1
| 15
| 2
|
ز هستی مر اندیشه را راه نیست
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1
| 2
| 1
| 1
|
کنون ای خردمند وصف خرد
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1
| 2
| 1
| 2
|
بدین جایگه گفتن اندر خورد
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1
| 2
| 2
| 1
|
کنون تا چه داری بیار از خرد
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1
| 2
| 2
| 2
|
که گوش نیوشنده ز او بر خورد
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1
| 2
| 3
| 1
|
خرد بهتر از هر چه ایزد بداد
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1
| 2
| 3
| 2
|
ستایش خرد را به از راه داد
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1
| 2
| 4
| 1
|
خرد رهنمای و خرد دلگشای
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1
| 2
| 4
| 2
|
خرد دست گیرد به هر دو سرای
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1
| 2
| 5
| 1
|
از او شادمانی و ز اویت غمی است
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1
| 2
| 5
| 2
|
و ز اویت فزونی و ز اویت کمی است
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1
| 2
| 6
| 1
|
خرد تیره و مرد روشن روان
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1
| 2
| 6
| 2
|
نباشد همی شادمان یک زمان
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1
| 2
| 7
| 1
|
چه گفت آن خردمند مرد خرد
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1
| 2
| 7
| 2
|
که دانا ز گفتار او بر خورد
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1
| 2
| 8
| 1
|
کسی کو خرد را ندارد ز پیش
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1
| 2
| 8
| 2
|
دلش گردد از کردهٔ خویش ریش
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1
| 2
| 9
| 1
|
هشیوار دیوانه خواند ورا
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1
| 2
| 9
| 2
|
همان خویش بیگانه داند ورا
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1
| 2
| 10
| 1
|
از اویی به هر دو سرای ارجمند
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1
| 2
| 10
| 2
|
گسسته خرد پای دارد به بند
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1
| 2
| 11
| 1
|
خرد چشم جان است چون بنگری
|
1
| 2
| 11
| 2
|
تو بیچشم شادان جهان نسپری
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1
| 2
| 12
| 1
|
نخست آفرینش خرد را شناس
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1
| 2
| 12
| 2
|
نگهبان جان است و آن سه پاس
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1
| 2
| 13
| 1
|
سه پاس تو چشم است و گوش و زبان
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1
| 2
| 13
| 2
|
کز این سه رسد نیک و بد بیگمان
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1
| 2
| 14
| 1
|
خرد را و جان را که یارد ستود
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1
| 2
| 14
| 2
|
و گر من ستایم که یارد شنود
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1
| 2
| 15
| 1
|
حکیما چو کس نیست گفتن چه سود
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1
| 2
| 15
| 2
|
از این پس بگو کآفرینش چه بود
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1
| 2
| 16
| 1
|
تویی کردهٔ کردگار جهان
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1
| 2
| 16
| 2
|
ببینی همی آشکار و نهان
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1
| 2
| 17
| 1
|
به گفتار دانندگان راه جوی
|
1
| 2
| 17
| 2
|
به گیتی بپوی و به هر کس بگوی
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1
| 2
| 18
| 1
|
ز هر دانشی چون سخن بشنوی
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1
| 2
| 18
| 2
|
از آموختن یک زمان نغنوی
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1
| 2
| 19
| 1
|
چو دیدار یابی به شاخ سخن
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1
| 2
| 19
| 2
|
بدانی که دانش نیاید به بن
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1
| 3
| 1
| 1
|
از آغاز باید که دانی درست
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1
| 3
| 1
| 2
|
سر مایهٔ گوهران از نخست
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1
| 3
| 2
| 1
|
که یزدان ز ناچیز چیز آفرید
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1
| 3
| 2
| 2
|
بدان تا توانایی آرد پدید
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1
| 3
| 3
| 1
|
سرِ مایهٔ گوهران این چهار
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1
| 3
| 3
| 2
|
بر آورده بیرنج و بیروزگار
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1
| 3
| 4
| 1
|
یکی آتشی بر شده تابناک
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1
| 3
| 4
| 2
|
میان آب و باد از بر تیره خاک
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1
| 3
| 5
| 1
|
نخستین که آتش به جنبش دمید
|
1
| 3
| 5
| 2
|
ز گرمیش پس خشکی آمد پدید
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1
| 3
| 6
| 1
|
و زان پس ز آرام سردی نمود
|
1
| 3
| 6
| 2
|
ز سردی همان باز تری فزود
|
1
| 3
| 7
| 1
|
چو این چار گوهر به جای آمدند
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1
| 3
| 7
| 2
|
ز بهر سپنجی سرای آمدند
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1
| 3
| 8
| 1
|
گهرها یک اندر دگر ساخته
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1
| 3
| 8
| 2
|
ز هر گونه گردن برافراخته
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1
| 3
| 9
| 1
|
پدید آمد این گنبد تیز رو
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1
| 3
| 9
| 2
|
شگفتی نمایندهٔ نو به نو
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1
| 3
| 10
| 1
|
ابر ده و دو هفت شد کدخدای
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1
| 3
| 10
| 2
|
گرفتند هر یک سزاوار جای
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1
| 3
| 11
| 1
|
در بخشش و دادن آمد پدید
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1
| 3
| 11
| 2
|
ببخشید دانا چنان چون سزید
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1
| 3
| 12
| 1
|
فلکها یک اندر دگر بسته شد
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1
| 3
| 12
| 2
|
بجنبید چون کار پیوسته شد
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1
| 3
| 13
| 1
|
چو دریا و چون کوه و چون دشت و راغ
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1
| 3
| 13
| 2
|
زمین شد به کردار روشن چراغ
|
1
| 3
| 14
| 1
|
ببالید کوه آبها بر دمید
|
1
| 3
| 14
| 2
|
سر رستنی سوی بالا کشید
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1
| 3
| 15
| 1
|
زمین را بلندی نبد جایگاه
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1
| 3
| 15
| 2
|
یکی مرکزی تیره بود و سیاه
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1
| 3
| 16
| 1
|
ستاره بر او بر شگفتی نمود
|
1
| 3
| 16
| 2
|
به خاک اندرون روشنایی فزود
|
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